आलेख
राकेश मिश्रा
लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है और नेताओ की किस्मत जनता ही लिखती है।लेकिन राजनीतिक दलों में लोक तंत्र खत्म सा हो चुका है।राजनीतिक दल के बड़े नेता ही नेताओ और कार्यकर्ताओ के भाग्य विधाता है।इसके चलते जनता के पास भी अपनी पसंद के नेता को चुनने का अवसर खत्म हो रहा है। मतलब लोकतंत्र में भी जनता जनार्दन न होकर पार्टी के बड़े नेता ही जनता की पसंद निर्धारित कर रहे हैं।जनता को अपनी पसंद के नेताओ को वोट देने और चुनने का अवसर नहीं मिल रहा है।इसके पीछे बहुत बड़ा कारण राजनीतिक दलों के अंदर एक अलग तरह की राजनीति और लोकतंत्र का खत्म होना भी है।इस राजनीति में जमीनी कार्यकर्ताओ का महत्व केवल झंडा उठाने और नारे लगाने तक रह गया है।जमीनी कार्यकर्ताओ के लिए अवसर भी जमीनी स्तर पर ही बनाए जा रहे है।उन्हे बहलाने के पार्टी में पदाधिकारी बनाकर कोल्हू के बैल की तरह काम लिया जा रहा है।जनता के बीच पार्टी के सिद्धांतो और नीतियों को लेकर जाने की जवाबदारी जिन कार्यकर्ताओ के जिम्मे रहती है,उन्हे अवसर आने पर किनारे करके बड़े अवसर अपने नजदीकी या दूसरे दलों से आए बड़े कद के नेताओ को दे दिया जाता है।इस चक्कर में वर्षो से पार्टी के लिए अपना समय और श्रम देने वाले कार्यकर्ता किसी कोने में खड़े कर दिए जाते हैं और जनता अपने सुख दुख के साथी को चुनकर आगे भेजने के अवसर से वंचित कर दिया जाता है।

यह अन्याय तब और बड़ा हो जाता है जब किसी दूसरे दल से आए नेता को सिर्फ इस आधार पर पुराने कार्यकर्ताओ के अधिकार सौंप दिए जाते है क्योंकि वह जिस दल में थे उसमे उनका कद बड़ा था और वे अपना बड़ा कद लेकर यहां आए है।नए आए बड़े नेता के सामने पुराने कर्मठ कार्यकर्ताओ का अधिकार बौना हो जाता है। ऐसे में हो सकता है कि नेता की लोकप्रियता और नेतृत्व क्षमता के कायल होकर निश्चित ही कार्यकर्ता भी सिर आंखों पर बिठा लेंगे और उसके लिए अपना तन मन और धन समर्पित कर दमदारी से उसको जीताने की मुहिम में जुट जाएंगे।मगर एक प्रश्न जरूर उठता है कि जिस जनता और पार्टी ने नेताजी को सालो साल अपने जिगर का टुकड़ा बनाकर रखा है।जिन लोगो ने उनको भरपूर आशीर्वाद और अवसर दिया, उनके ऊपर अटूट भरोसा जताते हुए उन्हें सफल नेता बनाया। अचानक उनके साथ वर्षो के गहरे नाते को तोड़कर दूसरी विचारधारा को अपना अब अपनी पुरानी पार्टी और पुराने दोस्तों को जी भरकर कोसेंगे? मगर आज की राजनीति में ऐसे प्रश्न करने तो दूर की बात है।सोचे भी नहीं जाते है।आज की राजनीति में बड़े नेताओ के क्षद्म आभा मंडल के प्रकाश से अच्छे से अच्छे विवेकी लोगो की दृष्टि भी धुंधली हो जाती है।कभी यह सोचते ही नही कि जिस जनता और पार्टी ने बड़े नेता को बड़ा बनाने में विश्वास जताया है।नेताजी को उसे छोड़ने की नौबत आखिर आ क्यों रही है? आज की राजनीति में नेताओ की लोकप्रियता गांव ,कस्बा, जिला और प्रदेश से लेकर देश तक भी बढ़ जाती है।ऐसे नेता बड़ी हस्तियों में गिने जाते है।ये कहीं से भी चुनाव लड़कर जीत जाने की क्षमता रखते है,और ऐसा करते भी हैं।बड़े बड़े नेता अपने जमीनी जड़ों को छोड़कर दूसरे स्थानों से लड़कर चुनाव जीत जाते है।उनकी लोकप्रियता इतनी होती है कि जिस जगह वे चुनाव लड़ लें वही के कार्यकर्ता उनके कार्यकर्ता बन जाते है।उन्हे अपना नेता मानकर जी जान से चुनाव जिताने में जुट जाते हैं।लेकिन न तो ऐसे नेता यह सोचते हैं कि उनकी राजनीति सफलता की नींव में दबे उस विश्वास और उम्मीद का क्या होगा? जो उसके सफल राजनीतिक सफर के आरंभ में आगे बढ़ाने में साथ आए लोगो ने जताया था।और न ही नए क्षेत्र कें कार्यकर्ता यह सोचते हैं कि महोदय जी कल वहां थे,आज यहां,कल कहां जायेंगे क्या पता?ऐसे में साथ दिया जाए या न दिया जाए।

इसके पीछे एक सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण हमारा अपना स्वार्थीपन है।हम हर उस व्यक्ति को अपना सिरमौर कर लेते हैं,जिसके साथ से हमारा कोई काम सिद्ध हो सकता है या फिर हो गया हो ।इसी के चलते नेता क्षेत्रीय से प्रादेशिक और राष्ट्रीय पदवी पाते हैं।लेकिन इन सब घटनाक्रम में उस कार्यकर्ता की ओर किसी की दृष्टि जाती ही नहीं है,जिसके बरसो के समर्पण और त्याग का प्रतिफल किसी बड़े व्यक्तित्व के लोकप्रिय व्यक्ति को दे दिया जाता है। उसके समय,श्रम और धन का कोई मोल नहीं रह जाता है,क्योंकि उसके अधिकार को किसी अनिश्चित सकारात्मक परिणाम की आस में लोकप्रियता की भेंट चढ़ा दिया जाता है।उसे केवल झंडा उठाने और नारे लगाने तक सीमित कर दिया जाता है।या फिर कोई मंडल या सस्थान में प्रतिनिधि बनाकर सतुष्ट कर दिया जाता है।
आज के समय में अवसरवादी राजनीति हावी है।अपने लिए अवसर बनाने के लिए नेता दल बदल करने के साथ साथ जगह भी बदल रहे है।कार्यकर्ताओ के पास नए आए हुए ऐसे नेता जिसके साथ चार मुलाकात भी नही हुई है,उसके जयकारे के नारे लगाने के अलावा कोई विकल्प ही नही बचता है।लेकिन कर्मठ कार्यकर्ता बड़े नेताओ की तरह अपने अवसर की तलाश में पार्टी के सिद्धांतो से समझौता नहीं करते है और न ही नेता के चेहरे पर अपना मन बनाते है।उनकी पसंद तो पार्टी का सिद्धांत और निशान ही होता है।फिर चाहे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उन्हे अवसर दे या न दे वे तो पार्टी का झंडा बुलंद करते ही रहेंगे।